सत्ता के चालों की मुनादी।। नगरीय निकाय चुनावों के परिणाम सामने आ गए हैं। जहां भाजपा ने प्रदेश के सभी नगर निगमों सहित ज्यादातर नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों पर भी कब्जा जमा लिया है वहीं कांग्रेस पर्याप्त पार्षदों तक को तरस गई। विधानसभा चुनाव से जो जीत का सिलसिला भाजपा ने शुरू की है अभी तक अनवरत जारी है। इस बीच लोकसभा चुनाव में भी भाजपा बड़ी सफलता अपने खाते में दर्ज कर चुकी है वहीं कांग्रेस के अंदरूनी घमासान की वजह से कार्यकर्ताओं में भी आत्मविश्वास डगमगाता दिखता है और यह परिणाम उसी की झलक है।
प्रदेश में भाजपा को सत्ता में आए एक साल हो गया उन्होंने साबित किया कि वे लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं। एक साल में जितना काम किया जाना था उन्होंने किया है। कम से कम जनता ने उन्हें वोट देकर यह संदेश जारी दिया है कि उन्हें भाजपा पर फिलहाल तो भरोसा है। अक्सर स्थानीय निकाय चुनावों में सत्ता पक्ष का प्रभाव होता है लेकिन इतना नहीं कि विपक्ष का सुपड़ा ही साफ हो जाय। यदि लोगों को भाजपा के शासन पर भरोसा है तो उसका जरूर कोई कारण होगा। लोकतंत्र में सत्ता की चाबी जनता के पास ही होती है यदि जनता वोट दे रही है इसका मतलब साफ है कि उन्हें सत्ता पक्ष से फिलहाल कोई गिला शिकवा नहीं है। इसलिए ही लोगों ने पार्षदों से लेकर महापौर और अध्यक्ष के चुनाव के लिए दिल खोलकर वोट दिया है। प्रदेश के 10 में से 10 नगर निगमों, 49 नगरपालिका परिषद में से 35, 114 नगर पंचायतों में से 81 पर भाजपा ने कब्जा किया है वहीं कांग्रेस ने 8 नगर पालिका और 21 नगर पंचायतों पर ही जीत दर्ज करने में कामयाब रही। नगर निगम के 494 पार्षदों में से भाजपा के जहां 383 पार्षद चुने गए हैं वहीं कांग्रेस के 132 पार्षद ही चुने जा सके हैं।
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आशातीत सफलता अंकित किया था। 90 में से 62 सीट पर उसने जीत दर्ज की थी जबकि भाजपा मात्र 18 सीट पर सिमट गई थी। बाद में भाजपा की मात्र 14 सीट ही बची थी लेकिन उसके बाद भी भाजपा की किसी चुनाव में ऐसी दुर्गति नहीं हुई थी। जहां 2019 की लोकसभा चुनाव में उसने कमबैक किया था वहीं निकाय चुनावों में भी उसे अच्छी सफलता मिलती। कम से कम उसकी दुर्गति नहीं कही जा सकती। उसके पार्षदों की संख्या पर्याप्त थी । उस समय नियमों में संशोधन कर महापौर और अध्यक्षों का चुनाव पार्षदों के द्वारा करने का प्रावधान कर दिया गया था, इस हिसाब से उनके पास पार्षदों का अकाल नहीं था।
2023 में हुए चुनाव में हालांकि कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई लेकिन उसके 34 विधायक चुनाव जीत कर आए थे। 2018 में आए भाजपा विधायकों से दो गुना लेकिन लोकसभा के बाद निकाय चुनावों में भी इनकी दुर्गति हो गई। दरअसल इसके पीछे पार्टी में ही छिड़ी वर्चस्व की जंग है जो ब्लॉक से लेकर प्रदेश लेबल तक है। हालांकि ऐसी जंग सभी तरह के संगठनों में होना स्वाभाविक होता है लेकिन उसका प्रभाव सतह तक नहीं महसूस होता लेकिन कांग्रेस के कलह का प्रभाव उनके कार्यकर्ताओं के अलावा मतदाताओं तक को महसूस होता है या उन्हें महसूस करा दिया जाता है नतीजतन परिणाम में इस पार्टी का सुपड़ा साफ हो जाता है।
निकाय चुनावों के बीच ही कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष चरण दस महंत का यह बयान काफी वायरल हुआ जिसमें उन्होंने यह कह दिया था कि अगला विधानसभा चुनाव TS Singhdeo के नेतृत्व में होगा। इसके बाद भूपेश बघेल से हर जगह यह बात पूछा जाने लगा और उन्होंने भी पलटकर बयान दिया। हालांकि कांग्रेस के नेताओं को भाजपा को घेरने, उनके विरुद्ध बयान देने का काम करना था, जो अमूमन चुनावों में होता है लेकिन चुनाव के बीच ही पार्टी नेता ही आपस में भीड़ गए। इससे लोगों में मैसेज गया कि इन्हें वोट देकर आपस में ही लड़ाइयां क्यों करवानी है इससे अच्छा भाजपा को ही वोट दें और इन्हें लड़ने के लिए छुट्टी दें।
यह हाल सिर्फ ऊपरी स्तर पर ही नहीं बल्कि जिला और नगरपंचायत स्तर तक भी है। एक वार्ड में सभी कांग्रेसी एकजुटता दिखने उतर जाते हैं लेकिन महापौर या अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के लिए कांग्रेस में उस तरह से एकजुटता का भाव दिखा और पार्टी ने आक्रामक चुनाव लड़ी ही नहीं। यहां तक कि कांग्रेस के पार्षद पद के प्रत्याशियों के फोटो से महापौर प्रत्याशियों की फोटो तक गायब रही, ऐसे में संदेश स्पष्ट है कि हमें महापौर/अध्यक्ष से मतलब नहीं सिर्फ हमें वोट दे दो। पार्टी अभी भी पुराने पैटर्न से चुनाव लड़ती है, हर के बाद भी कोई सबक नहीं लेती। ऐसे में आने वाले दिनों में इस पार्टी की और दुर्गति संभावित है।